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Monday, November 25, 2019

ज़मीन पर मिल लग जाने से माँ बाप बन जायेगी

फ़िल्म: दो बीघा ज़मीन 
किस सन में रिलीज़ हुई: १९५३  1953
किसने कहा: ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद)
किससे कहा: शम्भू महतो (बलराज साहनी)
सम्वाद लेखक: पॉल महेंद्र

भारत में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा हमेशा एक पेचीदा मुद्दा रहा है. हालिया गतिविधियों से आप ऐसा समझ सकते हैं की देश बहुत तरक्क़ी कर चुका है. मगर फिर आप सत्तर साल पुरानी एक फ़िल्म का एक संवाद सुनते हैं, कुछ दृश्य देखते हैं और फिर आपको ऐसा लगता है - कि कुछ नहीं बदला. अभी भी बलवान और धनाढ्य लोग, ग़रीबों और कमज़ोरों का शोषण कर रहे हैं. बलवानों का स्वरूप बदला है अलबत्ता. ज़मींदारों की जगह उद्योगपतियों और सरकार ने ले ली है. पर स्थिति जस की तस है.

इस फ़िल्म की शुरुआत में कुछ उद्योगपति गाँव के ज़मींदार हर्नाम सिंह से कहते हैं,
"सरकार अब ज़मींदारी को तो रहने नहीं देगी, फिर इंडस्ट्री ही की तरफ़ क्यों न क़दम बढाए जाएँ ठाकुर साहब?"

ये उद्योगपति इस बात से परेशान हैं कि एक छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा उन्हें अपनी फैक्ट्री बनाने से रोक रहा था. वो टुकडा शम्भू  का था. लिहाज़ा उन्हें ठाकुर की ज़रुरत आन पड़ती है.
ठाकुर अपने नाइब को बुलाता है और पूछता है की शम्भू का कितना पैसा निकलता है उसकी तरफ़? वो उसे शंभू को बुला भेजना का हुक्म भी देता है.

जब शंभू हाज़िर होता है तो इधर उधर की बातों के बाद, ठाकुर बातों ही बातों में शम्भू से कहता है,
"ले ज़रा अंगूठे का निशाँ तो लगा दे इस काग़ज़ पर"
इसके एवज़ में वो शम्भू का पूरा क़र्ज़ा माफ़ करने और कुछ अतिरिक्त रक़म देने की पेशकश भी करता है.
शंभू  तैयार नहीं होता. वो कहता है,
"ज़मीन तो किसान की माँ है हुज़ूर. माँ को बेच दूं ?"
जवाब में ठाकुर तंज़िया लहजे में कहता है,
" अबे रहने दे, ज़मीन पर मिल लग जाने से माँ बाप बन जायेगी. ज़मीन से तुझे क्या मिलता है? मिल में मजदूरी करके भर पेट खायेगा, आराम की नींद सोयेगा"
शम्भू फिर भी नहीं मानता,
"हजूर पेड़ को मिटटी से हटा कर सोने में लगा दें तो क्या वो बच सकता है?"
सत्तर साल बाद भी ये सवाल उसी तरह मुंह बाएं खडा है!

माँ के बाप बन जाने की मिसाल अनोखी है. इसमें पितृसत्तात्मक सोच साफ़ झलकती है. और औरत के हेय होने की सोच भी स्पष्ट है.

Thursday, February 14, 2013

आप जैसे बोलें बिद्दा मॅडम

फ़िल्म : कहानी
किस सन में रिलीज़ हुई : 2012
किसने कहा : मिस्टर दास (नित्य गांगुली)
किससे कहा : विद्या बागची (विद्या बालन)
सम्वाद लेखक : रितेश शाह 

विकी डोनर, कहानी, पान सिंह तोमर और स्पेशल 26 जैसी फ़िल्मों में स्क्रिप्ट ही असली हीरो होता है. और मुझे ख़ुशी है कि ऐसी फ़िल्में हिन्दुस्तान में बनने लगी हैं और हिट भी होने लगी हैं. 

एक गर्भवती औरत विद्या बागची अपने लापता पति की तलाश में कोलकता पहुंचती है. वो एक पुलिसवाले के साथ उस होटेल में जाती है जहां उसका पति ठहरा था. यानि होटेल मोनालीसा. वहां पहुंच कर उसे पता चलता है कि उसका पति तो वहां कभी ठहरा ही नहीं था. पर वो इस बात को मानने को तैयार नहीं होती और उसी कमरे में रहने की ज़िद करती है जिसमें (उसके अनुसार) उसका पति ठहरा था. 

अगले दिन सुबह विद्या जब नहाने के लिए बाथरूम में जाती है, तो पाती है कि गर्म पानी उपलब्ध नहीं है. जबकि नीचे रिसेप्शन में 'रनिंग हॉट वॉटर" का बॉर्ड लगा हुआ था. झुंझला कर विद्या नीचे रिसेप्शन में शिकायत करने जाती है. अब देखिये उन दोनों की बातचीत. 

"good morning your maj...good morning बिद्दा madam."

 "बिद्दा नहीं विद्या व व नॉट ब"
 "आप जैसे बोलें बिद्दा मॅडम"
 "कमरे में गर्म पानी नहीं आ रहा"

आगे जो बाते होती हैं सो होती हैं. मगर जिस लाइन का मैं मुरीद हो गया हूं वो है आख़री से पहले वाली लाइन. तो अगर आपको कभी किसी की बात नहीं माननी हो और उसे नाराज़ भी ना करना हो, तो ये लाइन इस्तेमाल करें. मैं बहुत सफलता से (लगभग 1 साल से) इस जुमले का इस्तेमाल कर रहा हूं. 

Monday, April 30, 2012

जाट मरा तब जानिये जब तेरहवी हो जाए

फ़िल्म : अभय
किस सन में रिलीज़ हुई : 2001
किसने कहा : अभय कुमार (कमल हासन)
किससे कहा : ख़ुद से
सम्वाद लेखक : जावेद अख़्तर

विजय अपनी मंगेतर तेजस्विनी के साथ अपने जुडवां भाई अभय को देखने पागल ख़ाने जाता है. अभय उन पर हमला कर देता है और क़ाबू से बाहर हो जाता है. डॉक्टर उसको क़ाबू करके इंजेक्शन लगाते हैं. क़ाबू में आने से पहले अभय ये कविता सुनाता है. फ़िल्म के सम्वाद तो अमिताभ श्रीवास्तव नें लिखे हैं, पर कवितायें और गीत जावेद अख़्तर के हैं. इसका आख़री मिस्रा एक मशहूर कहावत है.

पानी पर पत्थर पडे तो उसमें लहर बन जाये
आग बुझाने चले हवा और उसको भडकाये
शत्रु, सांप कि राक्षस, ऐसे ना मिट पाये
जाट मरा तब जानिये जब तेरहवी हो जाये

कमल हासन साहब अपनी फ़िल्मों में प्रयोगधर्मिता के मेआर पर ऊंचाईयों को हासिल करते रहते हैं. अप्पू राजा में एक भाई आम ऊंचाई का था और एक बौना. हिन्दुस्तानी में एक जवान बेटा था और एक अधेड उम्र का बूढा. चिकनी चाची (या चाची 420) में एक मध्यम उमर की औरत थी और एक जवान आदमी. और वो इक्लौते बडे सितारे हैं हिन्दुस्तान के, जिनके इन किरदारों में विश्वसनीयता होती है. ऐसा नहीं कि एक नक़ली दाढी और मूछ लगा कर दोहरी भूमिका निभा रहे हैं. दशावतारम में तो उन्होंने हद ही कर दी. दस किरदार निभाये. बूढी औरत से लेकर, अमरीकी राष्ट्रपति से लेकर, दलेर मेह्न्दी तक. 

ख़ैर इस फ़िल्म में एक भाई आम डील डौल का था (आर्मी के किसी आम अफ़सर जैसा) और दूसरा भाई गजिनी के आमिर जैसा. सुडौल और सधी हुई मांसपेशियों वाला. यह फ़िल्म तमिय़ में भी आळवन्दान (ஆளவந்தான்) के नाम से  रिलीज़ हुई थी. 

Wednesday, April 25, 2012

पाण्डवों वाली शर्त मत लगाइये

फ़िल्म : चक दे इंडिया
किस सन में रिलीज़ हुई : 2007
किसने कहा : त्रिपाठी (अंजन श्रीवास्तव)
किससे कहा : कबीर ख़ान (शाहरुख़ ख़ान)
सम्वाद लेखक : जयदीप साहनी

इसमे एक दृश्य है जिसमें कबीर ख़ान (जो महिलाओं की हॉकी टीम के कोच हैं) तो हॉकी फ़ेडरेशन को अपनी टीम का मर्दों की हॉकी टीम से मुक़ाबला करवाने की  चुनौती देते हैं. इसकी पृष्ठभूमि ये है कि फ़ेडरेशन नें उनके अथक परिश्रम को नज़रअन्दाज़ करते हुए ये फ़ैसला किया हुआ है कि धन की कमी की वजह से विश्व कप में सिर्फ़ एक ही टीम जायेगी - और ज़ाहिर है वो मर्दों की टीम होगी.

थक हार कर कबीर पुरुषों की टीम के साथ खेलने की ये चुनौती पेश करते हैं. इस पर हॉकी फ़ेडरेशन के सदस्य त्रिपाठी (अंजन श्रीवास्तव) तंज़िया अन्दाज़ में कहते हैं

"पाण्डवों वाली शर्त मत लगाइये - चीर हरण न हो जाये"

कबीर अपनी पांडवों वाली शर्त जीतते हैं या हारते हैं, ये जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी. और अगर आप देख चुके हैं तो आप जानते ही होंगे. बहरहाल अगर आप किसी को कभी इस परिस्थिति में देखें कि उसका हारना तय हो, तो आप इस जुमले का इस्तेमाल कर सकते हैं -

पाण्डवों वाली शर्त मत लगाइये

Friday, April 20, 2012

दीन में दाढी होती है, दाढी में दीन नहीं

फ़िल्म : ख़ुदा के लिए
किस सन में रिलीज़ हुई : 2008
किसने कहा : मौलाना वली (नसीरुद्दीन शाह)
किससे कहा : अदालत से
सम्वाद लेखक : शोएब मंसूर 


इस सम्वाद से मुसलिम देशों में काफ़ी बवाल उठा था. पर बहुत लोगों ने इस फ़िल्म को सराहा भी था. मुझे ये फ़िल्म ठीक ठाक ही लगी. बस एक जगह एक किरदार ताजमहल को पाकिस्तान की उपलब्धि बताता है - उस जगह लेखक की ख़ाम ख़्याली पर तरस आया.

बहरहाल, मौलाना वली को एक मुक़दमे में गवाही देने के लिए बुलाया जाता है. तब शादी, संगीत और लिबास पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं. लिबास की अहमियत पर उनका ये मानना है, कि लिबास को देश और मौसम के हिसाब से बदलना ही मुनासिब है. 

"लिबास का तअल्लुक़ मआश्रत (society) से है मज़हब से बिल्कुल नहीं."

और जब वो दाढी के बारे में भी यही कहते हैं कि उसकी पाबन्दी नहीं है, तो वक़ील साहब कहते हैं कि उन्होंने ख़ुद भी दाढी रखी हुई है. जवाब में मौलाना ये जुमला इस्तेमाल करते हैं.

"दीन में दाढी होती है, दाढी में दीन नहीं"


Tuesday, April 17, 2012

शहंशाहों के इंसाफ़ और ज़ुल्म में किस क़दर कम फ़र्क़ होता है

फ़िल्म : मुग़ल ए आज़म
किस सन में रिलीज़ हुई : 1960
किसने कहा : संगतराश (कुमार)
किससे कहा : अनारकली के बुत से
सम्वाद लेखक : कमाल अमरोहवी

मुग़ल ए आज़म की जितनी तारीफ़ की जाये कम है. उस से महज़ सात साल पहले बनी फ़िल्म अनारकली भी बहुत बडी हिट थी, मगर सिवाय संगीत के, वो फ़िल्म मुग़ल ए आज़म से हर मामले में उन्नीस ही है. 

अकबर अपने संगतराश को इनाम के तौर पर अनारकली देने की पेशकश करता है. वो पहले ही सलीम को दक्कन में जंग लडने भेज चुका है और सलीम की ग़ैर हाज़िरी में उसकी मुहब्बत को ठिकाने लगाना चाहता है. एक बूढे संग तराश के पल्ले बान्धने से बेहतर क्या इलाज हो सकता है इस मर्ज़ का. 

संगतराश - जिसने कि अनारकली की ख़ूबसूरत मूर्ति को बनाया है - उसके और अकबर के बीच के इस दिलचस्प सम्वाद को देखिये -

अ: संगतराश हमें ये जानकर ख़ुशी है कि तुम्हारे जैसे फ़नकार भी हमारी सल्तनत में आबाद हैं

स : मगर सच तो ये है कि मैं आपकी सल्तनत में बरबाद हूं

अ: अब नहीं रहोगे. हम तुम्हारे फ़न की ख़ूबसूरती को मानते हैं, और तुम्हें इनाम ओ इकराम  से मालामाल करते हैं. 

स: फ़न की ख़ूबसूरती के लिए ये इनामात  बहुत है, मगर फ़न की सच्चाई के लिए बहुत कम. 

अ : फिर क्या चाहते हो. 

स : मैं अपने फ़न की सच्चाई को सल्तनत के गोशे गोशे में फैलाना चाहता हूं

अ : तुम्हें इजाज़त है . 

स : ज़हे क़िस्मत. जो करम अधूरा था, उसे ज़िल्ले इलाही की फ़राग़ दिली ने पूरा कर दिया. 

अ : नहीं... अभी पूरा नहीं हुआ. तुम्हारी ज़िन्दगी में एक मुस्कुराती हुई बहार की कमी है. हम तुम्हें इनाम में वो जीती जागती नाज़नीन भी अता करते हैं, जो तुम्हारे फ़न को पेश करने का ख़ूबसूरते सहारा बनी थी. 

स : यानि ?

अ : यानि कल अनारकली से तुम्हारी शादी कर दी जाएगी .

स : लेकिन ज़िल्ले इलाही. 

अ : क्या ये इनामात कम हैं?

स : बहुत हैं. उमीद से कहीं ज़्यादा. आज मैं ज़िल्ले इलाही के इंसाफ़ का क़ायल हो गया

अ : अब तुम जा सकते हो. 

संगतराश वापस अपने घर लौट कर अपनी बनाई अनारकली की मूर्ति के सामने कहता है

"शहंशाहों के इंसाफ़ और ज़ुल्म में किस क़दर कम फ़र्क़ होता है" 


और ज़ोर ज़ोर से हंसता है. 

क्या ख़ूबसूरत जुमला है. कभी अपने बॉस की कारगुज़ारियों पर ग़ौर कीजियेगा. इस जुमले की सच्चाई ज़ाहिर हो जाएगी. 


Tuesday, September 13, 2011

वर्ना क्या

फ़िल्म : पति पत्नी और वो
किस सन में रिलीज़ हुई : 1978
किसने कहा : शारदा (विद्या सिन्हा)
किससे कहा : रंजीत चड्डा (संजीव कुमार)
सम्वाद लेखक : नामालूम

बी आर चोपड़ा साहब की निर्देशित फ़िल्मों में ये इक्लौती कॉमेडी थी. इस फ़िल्म के लिए कमलेश्वर को बेहतरीन पटकथा लेखन का फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार मिला था. कहानी विवाहेतर सम्बन्धों पर एक मज़ाहिया टिप्पणी है. बहरहाल, फ़िल्म शुरु होते ही रंजीत और शारदा के बीच फ़टाफ़ट प्रेम होता है और वो पहले दस मिनट में ही शादी कर लेते हैं. आम हिन्दी फ़िल्मों में ये सब करने में तीन घंटे लग जाते हैं. ख़ैर शादी की रात रंजीत के दोस्त उसको हिदायत देते हैं कि शादी की पहली रात जो 'बिल्ली मार जाता है' उसका पलडा हमेशा भारी रहता है. इसी हिदायत के चलते, सुहाग रात ख़त्म होते ही रंजीत सोचता है कि रात को तो बिल्ली मारी नहीं. चलो सुबह ही मार लेते हैं. वो अपनी बीवी शारदा पर रौब जमाने लगते हैं. कुछ यूं -

"मुझे सुबह गरमा गरम चाय चाहिये. वर्ना..."

शारदा पूछने ही लगती है

"वर्ना क्या?"

कि रंजीत ज़ोर से चिल्ला के "वर्ना" इस तरह से दोहराते हैं, कि शारदा डर के उनका हुकुम बजाने के लिए चली जाती हैं. ये सिलसिला चलता रहता है. एक बार किसी दौरे पे जाने से पहले, रंजीत यही पैंतरा इस्तेमाल करते हैं और बीवी से कहते हैं कि उन्हें सुबह नहाने के लिए गरम पानी मिल जाना चाहिये. आदतन 'वर्ना' लफ़्ज़ जोड देते हैं.

पर अब तक उनके इस रवैये की इंतेहा हो चुकी होती है, और झुंझला के शारदा कुछ इस तरह पूछती है

"वर्ना क्या?"

कि भीगी बिल्ली बन कर रंजीत कहते हैं

"नहीं तो मैं ठंडे पानी से ही नहा लूंगा."

तो अगर आपकी ज़िन्दगी में भी कोई धौंस दिखा रहा हो, और आप भी चट गए हों, तो उनकी धौंस की हवा निकालिए. पूछिये - वर्ना क्या?

Friday, September 9, 2011

पहला ऑर्डर कॅंसल

फ़िल्म : शोले
किस सन में रिलीज़ हुई : 1975
किसने कहा : जयदेव (अमिताभ बच्चन) 
किससे कहा : जेलर (असरानी)
सम्वाद लेखक : सलीम जावेद 

इस फ़िल्म के बहुत से सम्वाद प्रचलित हैं और लोकप्रिय हैं. पर ये सम्वाद कम याद किया जाता है. हालांकि ये सम्वाद है बहुत सशक्त. काम काजी ज़िन्दगी में अक्सर ऐसे बॉस लोगों से पाला पडता है जो घडी घडी अपना फ़ैसला बदलते रहते हैं. उन सब को ये जुमला समर्पित है. 

जय और वीरू जेल से भागने का प्लान बनाते हैं. वो एक लकडी के टुकडे को पिस्तौल बता कर, जेलर को बन्धक बना लेते हैं. बन्धक बनाते ही वीरू जेलर को अपनी जगह से ना हिलने की सख़्त हिदायत देता है. फिर  बाक़ी सिपाहियों की बन्दूकें फिंकवा देने के बाद, वीरू जेलर को अपने साथ जेल के मुख्य द्वार तक चलने के लिए कहता है. 

जेलर ज़रा लक़ीर का फ़क़ीर क़िस्म का जेलर है. अंग्रेज़ों के ज़माने का जो है. तो वो आपत्ति ज़ाहिर करता है. कहता है कि आप ही ने तो हिलने से मना किया था. सख़्त हिदायत दी थी. परेशान जय अपने चिर परिचित अन्दाज़ में ये जुमला कहते हैं. 

"पहला ऑर्डर कॅंसल"

तब जाकर जेलर को तसल्ली होती है और वो दोनों क़ैदियों को बाहर तक छोड कर आता है. 

Thursday, September 8, 2011

Overconfidence नहीं रहना चाहिये

फ़िल्म : शिवा
किस सन में रिलीज़ हुई : 1989
किसने कहा : भवानी (रघुवरन)
किससे कहा : कॅमरे से
सम्वाद लेखक : इक़बाल दुर्रानी

ये मेरी पसन्दीदा फ़िल्मों में शुमार है. हालांकि हिन्दी सिनेमा के दर्शकों का इस फ़िल्म में रामगोपल वर्मा, नागार्जुन जैसे लोगों से तआरुफ़ हुआ, पर जो शख़्स सबको अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर गया वो था रघुवरन. तमिळ लहजे में हिन्दी सम्वाद इतने इबरतनाक तरीक़े से पहले किसी ने नहीं कहे थे. पहले तमिळ लहजा महमूदनुमा कॉमेडी का सबब हुआ करते थे. ऐसे परिदृश्य में एक कलाकार अगर इसी लहजे में बोलकर लोगों को डराने में कामयाब हो जाए, तो वो उस कलाकार की क्षमता का सबूत है. 

बहरहाल, भवानी एक ग़ुंडा है जो स्थानीय राजनेता तिलकधारी (परेश रावल) के दिशानिर्देशों पर काम करता है. विरोधी राजनेता कांता प्रसाद (गोगा कपूर) किसी मुआमले पर बातचीत करने के लिए एक नदी के पुल पर भवानी से मिलते हैं. कांता भवानी के बॉस का कच्चा चिट्ठा खोलने की धमकी देता है. बदले में भवानी कांता को मार देने की धमकी देता है. कांता भवानी को चुनौती देता है और कहता है कि वो उसे मार नहीं सकता. क्योंकि अगर वो उसे मारेगा तो पार्टी के सारे कार्यकर्ता तिलकधारी के ख़िलाफ़ हो जाएंगे. और तिलकधारी को ये बात नागवार गुज़रेगी. 

भवानी कांता को गले लगाने की मुद्रा में आगे बढता है और अचानक उसके पेट में छुरा भोंक कर उसे मार डालता है. फिर हम जैसे दर्शकों को समझाने हेतु कॅमरे की तरफ़ मुड के कहता है कि मौत का पता तो तब चलेगा जब लाश मिलेगी. और फिर आता है भवानी का ये सम्वाद. नथुने फुला के अपने चिर परिचित अन्दाज़ में वो कहता है,

"ओवर कॉंफ़िडेंस नहीं रहना चाहिये"


Wednesday, September 7, 2011

अब जनाज़े को रुख़सत की इजाज़त दीजिये

फ़िल्म : मुग़ल ए आज़म
किस सन में रिलीज़ हुई : 1960
किसने कहा : अनारकली (मधुबाला)
किससे कहा : अकबर (पृथ्वीराज कपूर)
सम्वाद लेखक : कमाल अमरोही

फ़िल्म के अंत में अकबर अनारकली को एक रात के लिए मलिका बनने की इजाज़त देते हैं, पर शर्त ये होती है कि रात ख़त्म होने से पहले वो एक बेहोशी की दवा वाला फूल सुंघा कर सलीम को बेहोश कर देगी. फिर अनारकली को ज़िन्दा दीवार में चुनवा दिया जाना था. जब बन ठन कर अनारकली निकलती है तो अकबर से इजाज़त ये कह कर लेती है ,

""अब जनाज़े को रुख़सत की इजाज़त दीजिये" .