फ़िल्म: दो बीघा ज़मीन
किस सन में रिलीज़ हुई: १९५३ 1953
किसने कहा: ठाकुर हरनाम सिंह (मुराद)
किससे कहा: शम्भू महतो (बलराज साहनी)
सम्वाद लेखक: पॉल महेंद्र
भारत में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा हमेशा एक पेचीदा मुद्दा रहा है. हालिया गतिविधियों से आप ऐसा समझ सकते हैं की देश बहुत तरक्क़ी कर चुका है. मगर फिर आप सत्तर साल पुरानी एक फ़िल्म का एक संवाद सुनते हैं, कुछ दृश्य देखते हैं और फिर आपको ऐसा लगता है - कि कुछ नहीं बदला. अभी भी बलवान और धनाढ्य लोग, ग़रीबों और कमज़ोरों का शोषण कर रहे हैं. बलवानों का स्वरूप बदला है अलबत्ता. ज़मींदारों की जगह उद्योगपतियों और सरकार ने ले ली है. पर स्थिति जस की तस है.
इस फ़िल्म की शुरुआत में कुछ उद्योगपति गाँव के ज़मींदार हर्नाम सिंह से कहते हैं,
"सरकार अब ज़मींदारी को तो रहने नहीं देगी, फिर इंडस्ट्री ही की तरफ़ क्यों न क़दम बढाए जाएँ ठाकुर साहब?"
ये उद्योगपति इस बात से परेशान हैं कि एक छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा उन्हें अपनी फैक्ट्री बनाने से रोक रहा था. वो टुकडा शम्भू का था. लिहाज़ा उन्हें ठाकुर की ज़रुरत आन पड़ती है.
ठाकुर अपने नाइब को बुलाता है और पूछता है की शम्भू का कितना पैसा निकलता है उसकी तरफ़? वो उसे शंभू को बुला भेजना का हुक्म भी देता है.
जब शंभू हाज़िर होता है तो इधर उधर की बातों के बाद, ठाकुर बातों ही बातों में शम्भू से कहता है,
"ले ज़रा अंगूठे का निशाँ तो लगा दे इस काग़ज़ पर"
इसके एवज़ में वो शम्भू का पूरा क़र्ज़ा माफ़ करने और कुछ अतिरिक्त रक़म देने की पेशकश भी करता है.
शंभू तैयार नहीं होता. वो कहता है,
"ज़मीन तो किसान की माँ है हुज़ूर. माँ को बेच दूं ?"
जवाब में ठाकुर तंज़िया लहजे में कहता है,
" अबे रहने दे, ज़मीन पर मिल लग जाने से माँ बाप बन जायेगी. ज़मीन से तुझे क्या मिलता है? मिल में मजदूरी करके भर पेट खायेगा, आराम की नींद सोयेगा"
शम्भू फिर भी नहीं मानता,
"हजूर पेड़ को मिटटी से हटा कर सोने में लगा दें तो क्या वो बच सकता है?"
सत्तर साल बाद भी ये सवाल उसी तरह मुंह बाएं खडा है!
माँ के बाप बन जाने की मिसाल अनोखी है. इसमें पितृसत्तात्मक सोच साफ़ झलकती है. और औरत के हेय होने की सोच भी स्पष्ट है.
भारत में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा हमेशा एक पेचीदा मुद्दा रहा है. हालिया गतिविधियों से आप ऐसा समझ सकते हैं की देश बहुत तरक्क़ी कर चुका है. मगर फिर आप सत्तर साल पुरानी एक फ़िल्म का एक संवाद सुनते हैं, कुछ दृश्य देखते हैं और फिर आपको ऐसा लगता है - कि कुछ नहीं बदला. अभी भी बलवान और धनाढ्य लोग, ग़रीबों और कमज़ोरों का शोषण कर रहे हैं. बलवानों का स्वरूप बदला है अलबत्ता. ज़मींदारों की जगह उद्योगपतियों और सरकार ने ले ली है. पर स्थिति जस की तस है.
इस फ़िल्म की शुरुआत में कुछ उद्योगपति गाँव के ज़मींदार हर्नाम सिंह से कहते हैं,
"सरकार अब ज़मींदारी को तो रहने नहीं देगी, फिर इंडस्ट्री ही की तरफ़ क्यों न क़दम बढाए जाएँ ठाकुर साहब?"
ये उद्योगपति इस बात से परेशान हैं कि एक छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा उन्हें अपनी फैक्ट्री बनाने से रोक रहा था. वो टुकडा शम्भू का था. लिहाज़ा उन्हें ठाकुर की ज़रुरत आन पड़ती है.
ठाकुर अपने नाइब को बुलाता है और पूछता है की शम्भू का कितना पैसा निकलता है उसकी तरफ़? वो उसे शंभू को बुला भेजना का हुक्म भी देता है.
जब शंभू हाज़िर होता है तो इधर उधर की बातों के बाद, ठाकुर बातों ही बातों में शम्भू से कहता है,
"ले ज़रा अंगूठे का निशाँ तो लगा दे इस काग़ज़ पर"
इसके एवज़ में वो शम्भू का पूरा क़र्ज़ा माफ़ करने और कुछ अतिरिक्त रक़म देने की पेशकश भी करता है.
शंभू तैयार नहीं होता. वो कहता है,
"ज़मीन तो किसान की माँ है हुज़ूर. माँ को बेच दूं ?"
जवाब में ठाकुर तंज़िया लहजे में कहता है,
" अबे रहने दे, ज़मीन पर मिल लग जाने से माँ बाप बन जायेगी. ज़मीन से तुझे क्या मिलता है? मिल में मजदूरी करके भर पेट खायेगा, आराम की नींद सोयेगा"
शम्भू फिर भी नहीं मानता,
"हजूर पेड़ को मिटटी से हटा कर सोने में लगा दें तो क्या वो बच सकता है?"
सत्तर साल बाद भी ये सवाल उसी तरह मुंह बाएं खडा है!
माँ के बाप बन जाने की मिसाल अनोखी है. इसमें पितृसत्तात्मक सोच साफ़ झलकती है. और औरत के हेय होने की सोच भी स्पष्ट है.