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Sunday, August 24, 2008

हम आने वाले ग़म को खींचतान के आज की ख़ुशी पर ले आते हैं

फ़िल्म : आनन्द
किस सन मे रिलीज़ हुयी : 1971
किसने कहा : आनन्द सहगल (राजेश ख़न्ना)
किससे कहा : डॉ भास्कर बॅनर्जी (अमिताभ बच्चन)
सम्वाद लेखक : गुलज़ार

इस चिट्ठे पर मैं उमूमन लम्बी लाइनें नहीं लिखता। पर इस लाइन का ख़याल इतना सुसंगत है की इस्तेमाल करने पर विवश हो गया। अगर मुझे ठीक से याद है, तो ऋषिदा के एक पत्रकार मित्र, ऐसा कहा करते थे। उसी से मुतासिर होकर ऋषिदा ने इसे अपनी फ़िल्म में भी जगह दी।
आनंद अब मौत की कगार पर पहुँच गया है और भास्कर इस वजह से चिडचिडा हो चला है। यूँ ही एक दिन आनंद आदतन हंसी ठट्ठा कर रहा था और डॉ को भी संजीदगी के माहौल से बाहर लाने की कोशिश कर रहा था। मगर भास्कर खीझ उठता है और आनंद पर चिल्ला पड़ता है। आनंद का सब्र भी जवाब दे देता है। वो फैसला कर लेता है की वो दिल्ली वापस चला जायेगा। वो कहता है की वो ऐसा अभागा है जो रोज़ अपनी मौत अपने दोस्तों की आंखों में देखता है। जब भास्कर आनंद की बात सुनता है तो वो भी फैसला कर लेता है की बजाय आनंद की मौत के बारे में सोच के परेशान हो, वो उसके रहने तक उसके जीने का जश्न मनायेगा। जैसा की आनंद ख़ुद कहता है
"जब तक ज़िंदा हूँ मरा नहीं और जब मर गया तो साला मैं ही नहीं, तो डर किस बात का "
किसी मशहूर शायर की पंक्तियाँ याद हो आती हैं
फैसला होने से पहले मैं भला क्यों हार मानूं जग अभी जीता नहीं है मैं अभी हारा नही हूँ
जब आनंद डॉक्टर का ये फ़ैसला सुनता है तो बेहद खुश होता है और कहता है
"हमारी मुश्किल मालूम है क्या है ...हम आने वाले ग़म को खींचतान के आज की खुशी पर ले आते हैं। "
मेरा एक दोस्त बिल्कुल ऐसा ही करता है । जब उसकी ज़िन्दगी में सब कुछ ठीक होता है तो उसको ऐसा लगता है की कुछ भारी विपदा आने वाली है। गुलज़ार साहब ने भी क्या खूब लिखा है
मुसुकुरायें तो मुस्कुराने के क़र्ज़ उतारने होंगे


1 comment:

उन्मुक्त said...

मुझे आनन्द फिल्म की आज भी याद है - बेहतरीन फिल्म। चार बार देखी थी।