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Saturday, July 30, 2011

मुंह मेरा धुलवाया और रिक्शा उसका ले गए

फ़िल्म : अंगूर
किस सन में रिलीज़ हुई : 1982
किसने कहा :  नामालूम (रिक्शा चालक)
किससे कहा : ख़ुद से या शायद अशोक (संजीव कुमार) से
सम्वाद लेखक : गुलज़ार

ये भी मेरी पसन्दीदा फ़िल्मों में से एक है. हालांकि ये तीन सदी पहले लिखी 'अ कॉमडी अव एरर्स' पर आधारित है और इससे पहले भी इस विषय पर हिन्दुस्तान में फ़िल्में बन चुकी हैं - मसलन बांगला भाषा की उत्तम कुमार अभिनीत भ्रांति बिलास या फिर किशोर कुमार अभिनीत हिन्दी फ़िल्म, दो दूनी चार - पर जो बात इसमें है, वो औरों में नहीं. गुलज़ार और संजीव कुमार की जोडी कमाल की थी, और सच कहूं तो संजीव कुमार के गुज़र जाने के बाद गुलज़ार भी अपाहिज से हो गये हैं. कोशिश तो बहुत की है उन्होंने, पर वो बात नहीं रही. ख़ैर वो क़िस्सा फिर कभी. 

सिचुएशन कुछ ऐसी है कि सारी उलझन इस बात को लेकर है कि दो दो अशोक एक ही शहर में हैं, पर दोनों (और शहर के बाक़ी लोग) इस बात से अंजान हैं. एक भाई शादी शुदा है और एक कुंवारा. तो कुंवारा अशोक एक दिन सुबह सुबह ऑटो पकडने के लिए ऑटो रिक्शा स्टॅंड जा पहुंचता है. वहां खडे पहले ऑटो वाले से पूछता है कि क्या वो होटेल इम्पीरियल चलेगा. ऑटो वाला राज़ी हो जाता है. बस इतना अर्ज़ करता है कि चूंकि वो अभी अभी उठा है तो ज़रा हाथ मुंह धोना चाहता है. अशोक मान जाता है. रिक्शा वाले के लौटने का इंतिज़ार करते वक़्त, सुनार के यहां से मंसूर मियां आकर उन्हें एक हार थमा देते हैं. मंसूर मिया उन्हें शादी शुदा अशोक समझ बैठे थे. अब ये सज्जन बहुत मना करते हैं, पर मंसूर ज़बरदस्ती उनके हाथ में थमा के भाग जाते हैं. इसी उधेडबुन में अशोक,  सामने से आते एक रिक्शा में बैठकर चले जाते हैं. तभी पहले वाला ऑटो चालक दौडा दौडा आता है. देखता है कि सवारी तो चली गई. वो कहता है

"मुंह मेरा धुलवाया और रिक्शा उसका ले गए"

यानी सारी मेहनत तो मुझसे करवाई और जब सवाब पाने का वक़्त आया तो किसी और को ही दे दिया. अक्सर अपनी बेचू ज़िन्दगी में कुछ ग्राहक मुझसे सारी बातें तफ़्सील से जान लेते थे (मैं काफ़ी अच्छी तरह समझाता था). पर ख़रीदने की बारी आती तो उस बेचू को बुलाते जो ज़्यादा डिस्काउंट देता हो. और ये जुमला अक्सर मेरे ज़ेहन में आता था. 

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